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प्र मे॑ विवि॒क्वाँ अ॑विदन्मनी॒षां धे॒नुं चर॑न्तीं॒ प्रयु॑ता॒मगो॑पाम्। स॒द्यश्चि॒द्या दु॑दु॒हे भूरि॑ धा॒सेरिन्द्र॒स्तद॒ग्निः प॑नि॒तारो॑ अस्याः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra me vivikvām̐ avidan manīṣāṁ dhenuṁ carantīm prayutām agopām | sadyaś cid yā duduhe bhūri dhāser indras tad agniḥ panitāro asyāḥ ||

पद पाठ

प्र। मे॒। वि॒वि॒क्वान्। अ॒वि॒द॒त्। म॒नी॒षाम्। धे॒नुम्। चर॑न्तीम्। प्रऽयु॑ताम्। अगो॑पाम्। स॒द्यः। चि॒त्। या। दु॒दु॒हे। भूरि॑। धा॒सेः। इन्द्रः॑। तत्। अ॒ग्निः। प॒नि॒तारः॑। अ॒स्याः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:57» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले सत्तावनवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में वाणी के विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (विविक्वान्) प्रकट मनुष्य (मे) मेरी (मनीषाम्) बुद्धि को (चरन्तीम्) प्राप्त होती हुई (प्रयुताम्) सङ्ख्यारहित बोधों से युक्त (धेनुम्) बछड़े को पालन करनेवाली गौ के सदृश वाणी को (प्र, अविदत्) प्राप्त हो और (या) जो (धासेः) प्राणों को धारण करनेवाले अन्न की (इन्द्रः) बिजुली के सदृश (अगोपाम्) अरक्षित को (भूरि) बहुत (सद्यः) शीघ्र (चित्) ही (दुदुहे) पूर्ण करता है (तत्) उस अन्न को (अग्निः) अग्नि के सदृश वर्त्तमान पुरुष प्राप्त होवै (अस्याः) इस वाणी का (पनितारः) स्तुति वा व्यवहार करनेवाले उपदेश देवैं, उस वाणी को सब लोग प्राप्त हों ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग अधर्म के आचरण से रहित विद्या को ग्रहण करने की इच्छा पूरी करनेवाले उत्तम वाणी का प्रयोग करने और सत्यधर्म का आचरण करते हुए सबकी इच्छा को पूरी करते हैं, वे अत्यन्त सत्कार करने योग्य होवें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वाणीविषयमाह।

अन्वय:

यो विविक्वान् मनुष्यो मे मनीषां चरन्तीं प्रयुतां धेनुं प्राविदत् या धासेरिन्द्र इवाऽगोपां भूरि सद्यश्चिद् दुदुहे तदग्निरिव पुरुषः प्राप्नुयादस्याः पनितार उपदिशेयुस्तां वाचं सर्वे प्राप्नुवन्तु ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (मे) मम (विविक्वान्) विविक्तः (अविदत्) प्राप्नुयात् (मनीषाम्) प्रज्ञाम् (धेनुम्) वत्सस्य पालिकां गामिव वाचम् (चरन्तीम्) प्राप्नुवन्तीम् (प्रयुताम्) असंख्यबोधाम् (अगोपाम्) अरक्षिताम् (सद्यः) (चित्) (या) (दुदुहे) प्राति (भूरि) बहु (धासेः) प्राणधारकस्यान्नस्य। धासिरित्यन्ननाम निघं० २। ७। (इन्द्रः) विद्युत् (तत्) अन्नम् (अग्निः) पावक इव वर्त्तमानः (पनितारः) स्तोतारो व्यवहर्त्तारो वा (अस्याः) वाचः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽधर्माचरणाद्विरहितां विद्यां जिघृक्षवः सुवाचं प्रयुञ्जानास्सत्यं धर्ममाचरन्तः सर्वेषामिच्छां दुहन्ति ते भूरि सत्कर्त्तव्यास्स्युः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वाणी, बुद्धी, गृहस्थाश्रम व स्त्री-पुरुषांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक अधर्माचे आचरण न करणारे, विद्या ग्रहण करण्याची इच्छा पूर्ण करणारे असून उत्तम वाणीचा प्रयोग करतात व सत्य धर्माचे आचरण करीत सर्वांची इच्छा पूर्ण करतात ते अत्याधिक सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ १ ॥